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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 62 
मनुष्य के हाथ में क्या है ? अगले पल क्या घटना घटित होगी, उसे तो इसका भान भी नहीं होता है और वह स्वयं को नियंता , कर्ता , भर्ता और पता नहीं क्या क्या समझ बैठता है ? उसका यही दर्प उसके पतन का कारण बनता है । किन्तु इसके बाद भी वह आत्माभिमान की पतवार थामे जीवन रूपी नैया को पार करने का प्रयास करता है । वह जानता है कि वह क्या है , किसका स्वरूप है ? किन्तु वह अपरा प्रकृति से संबंध स्थापित कर जड़ ( शरीर ) को ही सर्वस्व मानने की त्रुटि कर बैठता है । इसका परिणाम यह होता है कि वह अपने अंशी (परमात्मा) से विमुख होकर अपना अनर्थ कर बैठता है । माया मोह का परदा उसकी बुद्धि और विवेक को ढक देता है जिससे वह पतन के मार्ग पर तेजी से आगे बढता है । अनंत कामनाऐं अप्सराओं की भांति उसे अपनी ओर आकर्षित करती हैं । ज्ञानेन्द्रियां उसे आसक्ति के भंवर में धकेलने का प्रयास करती हैं । मन इंद्रियों के वशीभूत होकर अनंत आकाश में उन्मुक्त पक्षी की तरह विचरता है और विवेक को अपना दास बनाकर अपने साथ लेकर उड़ जाता है । इसके पश्चात मन शरीर पर निर्द्वंद्व होकर शासन करता है । जिसका परिणाम पुनर्जन्म के दुष्चक्र में फंसकर असह्य दुखों के रूप में सामने आता है । 

भूकंप, सुनामी , चक्रवात आदि प्राकृतिक घटनाऐं उसे बार बार स्मरण कराती हैं कि इस ब्रह्मांड में तेरा अस्तित्व एक तिनके से अधिक नहीं है । किन्तु मनुष्य का मन इस बात को मानने को तैयार ही नहीं होता है और वह रजो गुण तथा तमो गुण के साथ तादात्म्य स्थापित कर नित नये कुचक्रों के चक्रव्यूह में विवेक को फंसा देता है और मनुष्य कल्याण का मार्ग छोड़कर पतन के मार्ग पर चल पड़ता है । 

"कोरोना" जैसी महामारी उसे अल्प समय के लिए भयभीत अवश्य करतीं हैं , तब उसे प्रकृति और पुरुष की विशालता और स्वयं की लघुता का अहसास हो जाता है । भयभीत मन अन्य कोई विकल्प नहीं पाकर तब परमात्मा की सत्ता को स्वीकार कर लेता है और अपने कल्याण के लिए अपना पथ परिवर्तित कर लेता है । किन्तु जैसे ही वह कठिनाइयों से बाहर निकल जाता है , वह सर्वप्रथम परमात्मा की सत्ता को नकार कर स्वयं की सत्ता स्थापित करने की ओर अग्रसर हो जाता है । कुल मिलाकर जीवन चक्र यही है । मनुष्य इसी चक्र में फंसकर दुखों को भोगता रहता है । 

महाराज नहुष हस्तिनापुर का भविष्य निर्धारित करने के लिए "युवराज" चुनने की तैयारी कर रहे थे । उन्हें स्वयं के भविष्य का पता नहीं था कि उनके साथ क्या होने वाला है । स्वर्ग का अधिपति बनने से लेकर उन्हें "अजगर" योनि मिलने वाली है । जीवन की अनिश्चितताओं से अनजान मनुष्य अपनी दृष्टि से परिस्थितियों का आकलन कर अपनी प्रकृति के अनुसार निर्णय लेता है । 

राजपुरोहित विरधाचार्य के समक्ष जब महाराज नहुष ने ययाति को युवराज बनाने की मंशा प्रकट की तो विरधाचार्य अपने पोथी पन्ने खोलकर "शुभ मुहूर्त" ढूंढने में व्यस्त हो गये । बहुत देर तक काल गणना करने के उपरांत उनके चेहरे पर प्रसन्नता का उजाला हुआ और वे महाराज नहुष से बोले 
"अक्षय तृतीया" का मुहूर्त सर्वोत्तम है महाराज ! राजकुमार ययाति के युवराज पद पर नियुक्ति के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दिवस है । इस तिथि को उन्हें युवराज बनाने पर अक्षय तृतीया की तरह उनका राज्य भी अक्षय ही रहेगा" । 

महाराज नहुष को यह प्रस्ताव पसंद आ गया और ययाति को युवराज बनाने की तैयारियां प्रारंभ हो गईं । गंगा , यमुना, सरस्वती, गोदावरी और नर्मदा नदियों का जल मंगवाया गया । कोने कोने से प्रमुख आचार्यों, पण्डितों, पुरोहितों और विद्वानों को आमंत्रित किया गया । सुदूर देशों से प्रख्यात खांडविकों (हलवाइयों) को बुलवा कर भांति भांति के व्यंजन बनवाये गये । विपन्न, भिक्षुक, साधु, तीर्थयात्री, छात्र ,  असहायों और अशक्त जनों के लिये "सदाव्रत" खुलवा दिया गया । 

इस श्रेष्ठ अवसर के साक्षी बनने के लिए बड़े बड़े राजाओं को भी आमंत्रित किया गया । कुलिंद, देवप्रस्थ, त्रिगर्त, कोकनद, सिंहपुर , कम्बोज, किन्नौर, हाटक, गुह्यक, पांचाल, अहिच्छत्र, गंडक, पुलिंद, गिरिव्रज, कोल, किरात , शूरसेन, नर राष्ट्र, अवन्ति, सौमित्र, भोजकट, किष्किन्धा, पौरव, कलिंग, उण्ड्र, तालवन, मत्तमयूर, मरुदेश, दशार्ण देश , शिबि, त्रिगर्त, अंबष्ठ, मालव , पह्लव, पुष्कर आदि अनेक राज्यों के राजागण इस अवसर पर हस्तिनापुर पधारे थे । हस्तिनापुर का ऐश्वर्य देखकर राजागण अत्यंत आश्चर्य चकित हुए । 

हस्तिनापुर के राज दरबार में राजकुमार ययाति का अभिषेक किया गया । सैकड़ों विद्वानों ने मंत्रोच्चार करके आकाश गुंजायमान कर दिया । पंच नदियों के जल से ययाति का अभिषेक किया गया और उसके बदन पर चंदन , केसर का लेप किया गया । राजपुरोहित विरधाचार्य ने राजकुमार ययाति के मस्तक पर "युवराज" के लिए निर्धारित स्वर्ण जड़ित मुकुट रखा और पूरा राज दरबार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया । महारानी अशोक सुन्दरी के नयनों की कोर प्रेमानंद से गीली हो गईं । इस पल का वे कब से इंतजार कर रही थीं । आज उन्हें याति की अनुपस्थिति बहुत खल रही थी किन्तु नियति पर किसका वश चलता है ? हस्तिनापुर ययाति जैसे पराक्रमी राजकुमार को युवराज के रूप में देखकर हर्षोल्लास में डूबा गया था । 

महाराज नहुष और महारानी अशोक सुन्दरी सांध्य काल में अपने राजप्रासाद में निर्मित "प्रमद वन" में सैर कर रहे थे और राज कार्य में ययाति के हाथ बंटाने से अत्यंत प्रफुल्लित होकर ययाति की प्रशंसा के पुल बांधे जा रहे थे कि अचानक उन्हें "नारायण नारायण" की ध्वनि सुनाई दी । "नारायण नारायण" की ध्वनि देवॠषि नारद की पर्याय बन चुकी थी । "नारायण नारायण" शब्द सुनकर महाराज और महारानी दोनों विस्मित हुए , यद्यपि कारण दोनों के पृथक पृथक थे । महाराज को लगा कि नारद जी उनके पास ब्रह्मा जी का संदेश लेकर आये हैं और उन्हें देवताओं की ओर से युद्ध करने का निमंत्रण दिया गया है । एक क्षत्रिय वीर के लिए युद्ध घोष सदैव हर्षित करने वाली ध्वनि होती है । युद्ध का निमंत्रण तो साक्षात स्वर्ग का द्वार ही होता है । दानवों के विरुद्ध एक बार उन्हें पुन : युद्ध करने का अवसर प्राप्त होगा, इससे अधिक शुभ समाचार और क्या होगा ? 

किन्तु महारानी "नारायण नारायण" शब्दों को सुनकर भयभीत हो गई थीं । जिस तरह युद्ध क्षत्रियों के लिए शुभ समाचार लेकर आता है उसी तरह क्षत्राणियों के लिए शोक संदेश ही लाता है । प्रथम बात तो यह है कि पति युद्ध के मैदान में चला जाता है इससे उन्हें पति वियोग की अग्नि में तपना पड़ता है । द्वितीय यह कि युद्ध में कुछ भी हो सकता है । हताहत होना , अंग भंग होना तो युद्ध के पुरुस्कार हैं । दोनों ही स्थितियों में स्त्रियों का तो मरण ही है । और यदि पराजय का कलंक लग जाये तो यह और भी अधिक दुखदायी स्थिति है । विजय प्राप्त होने में आनंद ही आनंद है किन्तु उसमें भी शंका बनी रहती है कि महाराज अपने साथ कोई "सौतन" तो नहीं ले आऐंगे ? यही सोचकर अशोक सुन्दरी का हृदय शंकित हो गया था । 

"नारायण नारायण" । नारद जी सामने प्रकट हो गये । "कैसे हैं सम्राट और साम्राज्ञी" ? नारद जी सदैव की भांति मुस्कुराते हुए बोले ।
महाराज नहुष और महारानी ने देवर्षि नारद को साष्टांग प्रणाम किया । नारद जी ने उन्हें उठाते हुए आशीर्वाद दिया "स्वर्गाधिपति बनो" । 
"ये कैसा आशीर्वाद है देवर्षि" ? महाराज ने चौंककर पूछा 
"आशीर्वाद तो आशीर्वाद होता है महाराज ! ऋषियों के मुंह में सरस्वती का वास होता है इसलिए उनका आशीर्वाद एक न एक दिन अवश्य फलीभूत हो जाता है" । नारद जी मुस्कुराते हुए बोले । 
"पर ये कैसे संभव है महर्षि ? स्वर्गाधिपति तो कोई देव ही बनते हैं , मनुष्य नहीं । यह जानकर भी आपने ऐसा आशीर्वाद प्रदान किया" ? महाराज को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था । 
"भाग्य की गति बहुत प्रबल होती है महाराज । कौन जाने किसके भाग्य में क्या लिखा है ? आपकी बुद्धिमानी, वीरता , न्याय प्रियता , संवेदनशीलता, संयम आदि गुणों की चर्चा अक्सर देवलोक में होती रहती है । भगवान नारायण और ब्रह्मा जी आपके कर्मों से विशेष रूप से प्रभावित हैं । और देवलोक में परिस्थितियां भी कुछ विचित्र प्रकार की बन रही हैं । कल का क्या पता ? इसलिए आप भी स्वर्गाधिपति बनने की तैयारी कर लो" । नारद जी की मुस्कान और भी गहरी हो गई थी । 

नारद जी ने जब कहा कि "देवलोक में परिस्थितियां कुछ विचित्र बन रही हैं" सुनकर महाराज के मन में उत्सुकता जाग गई कि आखिर वहां पर चल क्या रहा है ? इसलिए उत्सुक्ता के चलते उन्होंने पूछ ही लिया "ऐसी क्या घटनाऐं घट गई हैं देवलोक में ? कुछ तो प्रकाश डालिये उन पर" ? महाराज उत्सुकतावश नारद जी के और पास आ गये । 

"नियति का प्रभाव है जो देवलोक में ऐसी बातें हो रही हैं । देवराज को तो आप जानते ही हैं । वे बहुत शीघ्र अमर्ष में आ जाते हैं । एक दिन किसी बात पर वे देव गुरू ब्रहस्पति से क्रोधित हो गये । उन्होंने देवसभा में ही उनका अपमान कर दिया । आहत देव गुरू भारी मन से बिना बताये ही देव सभा से चले गये । उनके जाने से देवलोक बिना गुरू के ही रह गया इससे देवताओं की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होने लगी । तब देवराज इंद्र भागे भागे ब्रह्मा जी के पास आये । ब्रहमा जी ने इन्द्र की बात सुनी और उन्होंने बारह आदित्यों में से एक ऋषि त्वष्टा के पुत्र "विश्वरूपा" को देवलोक का अस्थायी "गुरू" नियुक्त कर दिया । विश्वरूपा प्रजापति त्वष्टा (पिता) और असुर कुल की कन्या विरोचना (माता) की अद्भुत संतान थे । उनके तीन सिर थे । एक सिर से वे सुरा पान करते थे , दूसरे से सोमरस पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे । 

एक बार देवराज इन्द्र एक यज्ञ करवा रहे थे जिसे विश्व रूपा संपन्न करवा रहे थे । यज्ञ में आहुति देते समय विश्व रूपा चोरी से असुरों को भी आहुति दे रहे थे क्योंकि उनकी माता असुर कुल की थीं । देवराज ने विश्वरूपा को असुरों को आहुति देते हुए देख लिया इसलिए वे अत्यंत क्रोधित हो गये । उन्होंने अपनी तलवार से विश्वरूपा के तीनों सिर काट डाले । इस प्रकार देवराज इन्द्र पर ब्रह हत्या का आरोप लगा जिसे देवराज ने स्वीकार कर लिया । ब्रह्म हत्या के पाप से ग्रसित होकर देवराज क्षीण होने लगे तब पृथ्वी, वृक्ष, जल और स्त्री उन्हें इस पाप से मुक्त  कराने के लिए भगवान नारायण के पास गये । 

भगवान नारायण ने कहा "यदि देवराज इन्द्र के ब्रह्म हत्या का पाप कोई अपने ऊपर ले ले तो देवराज इन्द्र को इस पाप से मुक्ति मिल जायेगी" ।  भगवान की बात मानकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री सबने मिलकर देवराज इंद्र का पाप अपने ऊपर ले लिया । भगवान ने देवराज इन्द्र के पाप के चार हिस्से किये और पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री प्रत्येक को एक चौथाई हिस्सा दे दिया । अपने ऊपर देवराज का पाप लेने के कारण उन चारों में भयानक परिवर्तन हुए । पृथ्वी का एक चौथाई भाग "बंजर" हो गया । जल में "फेन" के रूप में गंदगी व्याप्त हो गई । वृक्ष का रस "पान" करने योग्य नहीं रहा और स्त्री में दोष होने के कारण वह "रजस्वला" हो गई और प्रत्येक माह उसे "मासिक स्त्राव" होने लगा जिसे मासिक धर्म कहा जाता है । 

भगवान नारायण उन चारों के निस्वार्थ त्याग को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और प्रत्येक को एक एक वरदान दे दिया । पृथ्वी को वरदान दिया कि उसकी सतह पर हुआ गड्ढा शीघ्र भर जायेगा । वृक्ष को वरदान दिया कि उसकी डाल टूटने पर नई डाल आ जायेगी । जल को वरदान दिया कि उसमें जितनी कमी होगी, उसकी पूर्ति हो जायेगी और वह उतना का उतना बना रहेगा । स्त्री को वरदान दिया कि वह केवल मासिक धर्म की अवधि में "सहवास" के योग्य नहीं होगी , शेष दिनों में वह पुरुष के सहवास के योग्य रहेगी । इस प्रकार देवराज इंद्र ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए । 

जब विश्व रूपा की हत्या देवराज ने की तो इससे उनके पिता त्वष्टा बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने उसी अग्नि कुंड से एक दानव की उत्पत्ति की जो वृत्रासुर कहलाया । वह प्रजापति त्वष्टा का पुत्र था इसलिए दानव होकर भी ब्राहण जाति का था । वृत्रासुर अग्नि कुंड से उत्पन्न हुआ था इसलिए वह अत्यंत शूरवीर था । उसने देवलोक पर आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित कर उन्हें देवलोक से निर्वासित कर दिया है । देवता पर्वतों के पीछे छुपने को बाध्य हो गये और अब वे महर्षि दाधीच के पास गये हैं उनकी अस्थियां लेने जिससे उनका वज्र बनाया जा सके और वृत्रासुर का वध किया जा सके" । देवर्षि नारद ने समस्त वृतांत कह सुनाया । 
"देवर्षि, वृत्रासुर भी तो प्रजापति त्वष्टा द्वारा उत्पन्न अग्नि से पैदा होने वाला पुत्र है इसलिए उनका वध करने पर क्या देवराज को पुन: ब्रह्म हत्या का पाप नहीं लगेगा" ? 
"आपका कहना उचित ही है सम्राट । देवराज पर ब्रह हत्या का पाप अवश्य लगेगा । लेकिन वृत्रासुर का वध होना अति आवश्यक है । इसलिए मैं आपको संकेत देने आया हूं सम्राट कि जब वृत्रासुर का वध हो जायेगा तब ब्रह्म हत्या के कारण इंद्र को अपना पद त्याग करना पड़ेगा । संभवत : तब आपको देवलोक का राजा बना दिया जाये । इस संभावना के लिए स्वयं को तैयार कर लो सम्राट अभी से , बाद में मत कहना कि बताया नहीं । नारायण नारायण" । और देवर्षि नारद अन्तर्ध्यान हो गये । 

श्री हरि 
27.7.23 

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1 Comments

madhura

06-Sep-2023 05:16 PM

Very nice

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